बात है २००४ की, तारीख १२ नवम्बर ।
कई सालों में ऐसा संयोग बनता है जब दिवाली और ईद आसपास पड़ रही हों । दिवाली थी १२ नवम्बर की और ईद थी १३ नवम्बर की। धारावी की उस छोटी सी चाल में बहुत रौनक थी । ८ साल का अनवर अपने अब्बू के साथ उस चाल में रहता था। अनवर की मां नहीं थी, बहुत छोटी उम्र में ही मां का देहांत हो गया था। उसके अब्बू ने ही उसे पाला था। अनवर के अब्बू एक फैक्ट्री में काम करते थे। अनवर की मां के जाने के बाद वो दोनों ही एक दुसरे का सहारा थे । अनवर के अब्बू भी कोशिश करते की जहाँ तक हो सके अनवर को मां की कमी ना महसूस होने दें । अनवर के अब्बू भरसक प्रयास करते अब्बू की सारी ख्वाहिशें पूरी करने की पर थोड़ी तंगी जिन्दगी में बनी ही रहती ।
अनवर अपने बाबा के पास आया और बोला: बाबा आपको मालूम है जो मेरा दोस्त है न अमित जो बाजू वाली चाल में रहता है ?
अब्बू : हाँ
अनवर: उसके घर इस बार दिवाली नहीं मना रहे बहुत उदास है वो।
अब्बू : क्यूँ नहीं मना रहे दिवाली ?
अनवर : अरे वो बोल रहा है उसके दादा जी ख़तम हो गए थे न कुछ दिन पहले तो दिवाली नहीं मनाएंगे इस साल। अनरई की दिवाली रहेगी ये वाली। अब्बू ये अनरई क्या होता है?
अब्बू : देखो जब हिन्दुओं में किसी का कोई अपना मर जाता है तो उसकी याद में एक साल तक कोई त्यौहार नहीं मनाते इसी को अनरई कहते हैं।
अनवर : ओह्ह ।। तो ये केवल हिन्दुओं में होता है ?
अब्बू : हाँ, बेटा। होता तो हिन्दुओं में है पर ये तो दुःख है ना ये तो किसी का भी बाँट सकते हैं । अच्छा चलो मुझे काम पे जाना है तुम अन्दर से बंद कर लेना और पढाई करना ।
अनवर : अब्बू पढाई तो मैं कर लूँगा पर कल आपको मालूम है न क्या है?
अब्बू : हाँ कल ईद है।
अनवर : आपने वादा किया था इस साल ईद की ईदी के रूप में मुझे नई साइकिल दिलाएंगे । मेरे सब दोस्तों के पास साइकिल है और मैं ऐसे ही उनके पीछे पीछे दौड़ता रहता हूँ ।
अब्बू (सोचते हुए) : हाँ बेटा बोला तो था, पर ...
अनवर : अब्बू, पर-वर कुछ नहीं चलेगा । आपको दिलानी पड़ेगी आपने मुझे पक्का वाला प्रॉमिस किया था।
अब्बू : ठीक है देखता हूँ।
शाम को अनवर के अब्बू जब काम से निकले तो बहुत उदास थे। अनवर कई दिनों से साइकिल की जिद कर रहा था और इधर उसके अब्बू के पास पैसा था नहीं कुछ हाथ में। तनख्वाह मिलने में भी समय था। आज मेनेजर से एडवांस माँगा तो उसने भी ये कहके पल्ला झाड लिया की यार दिवाली ईद दोनों साथ में है एक को एडवांस देंगे तो सब मांगेंगे, किसको मना करेंगे। अनवर के अब्बू को समझ नहीं आ रहा था की क्या समझाएगा अनवर को। ऐसे तो अनवर अपनी उम्र के बच्चों से कुछ ज्यादा समझदार था । कभी भी कुछ नहीं मांगता था वो, मां की मौत हुयी तब लगभग 4 साल का था पर जैसे एकदम से बड़ा हो गया था । पर इस बार साइकिल के लिए कुछ ज्यादा ही जिद पकड़ कर बैठा था। घर तो जाना ही होगा ये सोचकर अनवर के अब्बू ने कदम बढ़ाये भारी मन से। अनवर से क्या कहेगा कुछ समझ नहीं आ रहा था ।
चाल तक पहुंचा ही था की देखा कि अनवर अपने दोस्त अमित के साथ अपनी चाल के बाहर बैठा था। अपने अब्बू को देखते ही उसकी आँखों में चमक आई फिर उन्हें खाली हाथ देख वो समझ गया की क्या मामला हुआ होगा।
अब्बू : अनवर वो तुम्हारी साइकिल ..
अनवर (बीच में टोकते हुए ): अब्बू मैं आपको बोलने ही वाला था तब तक आप चले गए।
अब्बू : क्या बोलने वाले थे?
अनवर : यही की अमित के दादाजी ख़तम हुए हैं तो मैं भी तो उनको दादू बोलता था और वो मुझे अमित जैसे ही प्यार करते थे तो अगर उसके घर अनरई की दिवाली है तो हमारी ईद भी तो अनरई की होनी चाहिए न। अच्छा हुआ आप साइकिल नहीं लाये वरना अमित को भी बुरा लगता न। मैं अकेला थोड़ी न साइकिल चलाता। अब जब अमित के घर माहौल थोडा ठीक होगा तभी लूँगा मैं साइकिल ।
अनवर के अब्बू ने अनवर को गले लगा लिया । सोच रहा था इतना समझदार हो गया अनवर । ये बिना मां का बेटा । ये लड़का जो पिछले छह महीने से बस ईद का इन्तेजार कर रहा था साइकिल लेने के लिए और आज चुपचाप मान गया। इसका बहाना तो देखो कितना संवेदनशील हो गया है ये । उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे । वो अमित और अनवर के साथ बैठ गया बरामदे में उस “अनरई की ईद और दिवाली ” को मनाने।