एक मुसाफिर है तन्हा । एक अनजान शहर, अनजान रेलवे स्टेशन और चारों तरफ अनजान लोगों के बीच भटक रहा है । कोई उसे नहीं जानता । वो किसी को नहीं जानता । कहाँ से आया है पता नहीं । कहाँ जायेगा ये भी पता नहीं । एक ट्रेन से किसी को छोड़ने आया था खड़गपुर स्टेशन, फिर १० मिनट बाद वापसी की ट्रेन पकड़ना थी , पर उसने छोड़ दी । अगली ट्रेन 4 घंटे बाद है । क्यों ट्रेन छोड़ी उसे पता नहीं है । यहाँ क्या करेगा ये भी कुछ ठीक नहीं है ।
याद आता है कि बचपन में भूगोल की किताब में उसने पढ़ा था कि खड़गपुर का प्लेटफार्म सबसे लम्बा होता है । यह भी पढ़ा था कि कहीं सुंदरबन नाम की जगह है जहाँ गंगा नदी एक डेल्टा बनाती है । 2 साल पहले सुंदरबन घूम चूका है वो । अभी तक लेकिन खड़गपुर का प्लेटफार्म नहीं देखा उसने । उसे नहीं पता कि कैसे होते हैं लम्बे प्लेटफार्म और कितने लम्बे होते हैं । कोई सुनेगा तो यही कहेगा कि प्लेटफार्म कोई देखने की चीज है क्या ?
वो प्लेटफार्म के एक छोर से दूसरे छोर तक टहल रहा है बिना कुछ सोचे हुए, बिना कुछ भी और किये हुये । सारी दुनिया अनजान से डरती है ....अनजान चीजों से, अनजान लोगों से । उसके अन्दर किसी अनजान का कोई डर नहीं है क्योंकि वो जानता है कि जैसे ये दुनिया ये शहर और ये रेल्वे स्टेशन उसके लिए अनजान हैं वैसे ही वो भी अनजान है इन सबके लिए । इन सबको उससे डरना चाहिए ।
सामान के नाम पर उसके पास एक शाल है, एक पर्स जिसमें 1-2 नोट हैं और हाथ में एक किताब है ।
इस समय वो जहाँ जाना चाहे जा सकता है । इस समय वो जो करना चाहे कर सकता है । उसे किसी से कुछ पूछने की कोई जरुरत नहीं है उसे किसी को कुछ बताने की जरुरत नहीं है ।
क्या है ये ? आजादी या अकेलापन ??
क्या अकेलापन आजादी लाता है ??
क्या आजादी और अकेलापन एक ही सिक्के के दो पहलु हैं ?
उसके फ़ोन पर उम्मीद फ़ाज़ली की ग़ज़ल आ रही है :
"ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ
हम अपने शहर में होते तो घर चले जाते"