Dec 16, 2024

खड़गपुर रेल्वे स्टेशन

एक मुसाफिर है तन्हा । एक अनजान शहर, अनजान रेलवे स्टेशन और चारों तरफ अनजान लोगों के बीच भटक रहा है । कोई उसे नहीं जानता । वो किसी को नहीं जानता । कहाँ से आया है पता नहीं । कहाँ जायेगा ये भी पता नहीं । एक ट्रेन से किसी को छोड़ने आया था खड़गपुर स्टेशन, फिर १० मिनट बाद वापसी की ट्रेन पकड़ना थी , पर उसने छोड़ दी । अगली ट्रेन 4 घंटे बाद है । क्यों ट्रेन छोड़ी उसे पता नहीं है । यहाँ क्या करेगा ये भी कुछ ठीक नहीं है । 

याद आता है कि बचपन में भूगोल की किताब में उसने पढ़ा था कि खड़गपुर का प्लेटफार्म सबसे लम्बा होता है । यह भी पढ़ा था कि कहीं सुंदरबन नाम की जगह है जहाँ गंगा नदी एक डेल्टा बनाती है । 2 साल पहले सुंदरबन घूम चूका है वो । अभी तक लेकिन खड़गपुर का प्लेटफार्म नहीं देखा उसने । उसे नहीं पता कि कैसे होते हैं लम्बे प्लेटफार्म और कितने लम्बे होते हैं । कोई सुनेगा तो यही कहेगा कि प्लेटफार्म कोई देखने की चीज है क्या ?

वो प्लेटफार्म के एक छोर से दूसरे छोर तक टहल रहा है बिना कुछ सोचे हुए, बिना कुछ भी और किये हुये । सारी दुनिया अनजान से डरती है ....अनजान चीजों से, अनजान लोगों से । उसके अन्दर किसी अनजान का कोई डर नहीं है क्योंकि वो जानता है कि जैसे ये दुनिया ये शहर और ये रेल्वे स्टेशन उसके लिए अनजान हैं वैसे ही वो भी अनजान है इन सबके लिए । इन सबको उससे डरना चाहिए । 

सामान के नाम पर उसके पास एक शाल है, एक पर्स जिसमें 1-2 नोट हैं और हाथ में एक किताब है । 

इस समय वो जहाँ जाना चाहे जा सकता है । इस समय वो जो करना चाहे कर सकता है । उसे किसी से कुछ पूछने की कोई जरुरत नहीं है उसे किसी को कुछ बताने की जरुरत नहीं है । 

क्या है ये ? आजादी या अकेलापन ?? 

क्या अकेलापन आजादी लाता है ??

क्या आजादी और अकेलापन एक ही सिक्के के दो पहलु हैं ? 

उसके फ़ोन पर उम्मीद फ़ाज़ली की ग़ज़ल आ रही है :

"ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ

हम अपने शहर में होते तो घर चले जाते"


Jul 2, 2022

दुर्गा

गाँव था सुजालपुर । गाँव में गरीबी भुखमरी फैली हुयी थी। कई परिवार गाँव छोड़ छोड़कर पास के शहरों में मजदूरी करने चले गए थे। गाँव वालों का मुख्य व्यवसाय खेती हुआ करता था पर कई साल से बारिश नहीं हुयी तो सारी जमीन ही बंजर होने लगी थी। छोटी मोटी कुछ फसलें उगाकर लोग काम चलाते थे या जानवर पालकर और उनका दूध बेचकर अपनी जीविका चलते थे। गाँव में मुश्किल से १५-२० परिवार बचे थे। यही हालत आसपास के ३०-४० गांवों की थी। लोग रुढ़िवादी थे ।

उसी गाँव में नए नए आये थे बलराम और पिंकी। गाँव के बाहर की तरफ ही अपना छोटा सा तम्बू गाड लिया। बाद में गाँव में थोड़ी जान पहचान हुयी तो अपनी फूस की एक झोपडी बना ली। दोनों का स्वभाव बहुत अच्छा और मिलनसार था। सबसे बहुत अच्छे से मिलते और सभी के दुःख सुख में खड़े रहते। उन्ही के पड़ोस में उषा और मनोज रहते थे। अक्सर मनोज और बलराम साथ बैठते तो बातचीत का दौर निकल पड़ता।मनोज : एक बात बताओ बलराम भाई। तुम्हारी क्या कहानी है? कहाँ से आये हो ? इस क्षेत्र के तो नहीं लगते हो। 

बलराम : (कुछ सोचते हुए ) कहानी क्या ही होगी। यहाँ से २०० किलो मीटर आगे हमारा गाँव था। उसी में पैदा हुए , उसी में पले बढे फिर उसी गाँव के पास एक गाँव से शादी हुयी। शादी के 5-6 साल हो गए थे बच्चा नहीं हुआ था। पिंकी का बड़ा मन था की बच्चा होता पर विधाता को जो मंजूर हो। बापू तो बचपन में ही चला गया था बाद में मां भी चली गयी। तब भी हम दोनों किसी तरह शांति से अपना गुजरा करते थे। फिर एक दिन पड़ोस की एक लड़की थी पिंकी की अच्छी बात होती थी उससे। वो गर्भवती हो गयी। पिंकी उसका ध्यान रखने लगी। अच्छे से खाए पिए, चलने फिरने में ध्यान रखे पिंकी की यही जिम्मेदारी थी। पिंकी शाम में उसकी तबियत का ऐसे बताती जैसे वो खुद गर्भवती हो। अपने खाने पीने की भी कोई सुध नहीं थी। अब विधाता को पता नहीं क्या मंजूर था प्रसव के समय औरत को बहुत ज्यादा दर्द होने लगा। गाँव के लोग थे झोला छाप डॉक्टरों के चक्कर में पड़े रहे जब शहर के बड़े अस्पताल ले गए तब उसने बताया कि बच्चे के गले में नाल फंस गयी है ऑपरेशन करना पड़ेगा। ऑपरेशन कराना होगा फिर खर्चा भी ज्यादा होगा ये सुनकर गाँव वाले थोड़ी देर उहापोह में फंसे रहे फिर जब तक मन बनाया ऑपरेशन का तब तक देर हो चुकी थी। बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ। गाँव में लोगों ने शकुन अपशकुन शुरू कर दिया। सारा इल्जाम पिंकी पर डाल दिया। बोलने लगे लोग की ये बाँझ है यही बच्चा खा गयी है , इसको तो आसपास ही नहीं आने देना था। और भी पता नहीं क्या क्या  कहा गया। हमें गाँव से अलग थलग कर दिया। ना कोई बोलता न कोई सामने पड़ता। मैंने सोच लिया जहाँ इज्जत नहीं वहां क्या रहेंगे। पिंकी भी थोड़ी शांत सी रहने लगी थी। पहले नवरात्री पिंकी बड़े उत्साह से मनाती थी। व्रत रखती, पूजा करती, अपनी हैसियत के अनुसार कन्या भोज करा देती पर फिर उसने सब छोड़ दिया। हमने अपना गाँव छोड़ा और दुसरे ठिये की खोज में इस गाँव आ गए। कोई हमें बोला भी कि इस गाँव में मत रहना बड़ा मनहूस गाँव है। हमने सोचा हम भी मनहूस हैं ये भी मनहूस है अच्छा ही साथ निभेगा। आ गए यहाँ। 

मनोज : सही में गलत तो हुआ तुम्हारे साथ। भाभी अब नवरात्री करती हैं या नहीं?

बलराम : बस निराहार व्रत रखती है अब और शाम को आटे का एक दीपक जला देती है। खैर ये सब छोडो। ये तो हुयी हमारी बात। अब एक बात बताओ ये गाँव में इतनी गरीबी और भुखमरी क्यूँ है ? सब इसे मनहूस क्यूँ कहते हैं। पूरा गाँव वीराना सा दिखता है।

मनोज : अरे क्या बताएं बलराम भाई, बात केवल इस गाँव की नहीं है यहाँ आसपास 30-40 गांवों की यही हालत है। गरीबी, बेरोजगारी से लोगों की कमर टूटी पड़ी है। मौसम भी कुछ अजीब सा ही है।

बलराम : वही तो पूछ रहा हूँ ऐसा क्यूँ है ? जमीन पूरी बंजर दिखती है।

मनोज : अरे, सब श्राप है।

बलराम : श्राप किसका ?

मनोज : दुर्गा माता का। तुमने ध्यान नहीं दिया होगा कि इस सारे क्षेत्र में ही लकड़ियाँ बहुत कम हैं।

बलराम सोच में पड़ गया।

मनोज : सोचो मत, सही में ऐसा है। ये सब गाँव बहुत रुढ़िवादी हैं। जाति-पाति, धर्मं, लड़का लड़की सब तरह का भेदभाव यहाँ चलता है पर सबसे बड़ा भेदभाव हैं यहाँ पर लिंग भेद का।

बलराम : मतलब ?

मनोज : मतलब ये बलराम बाबु की यहाँ लोग लकड़ियों पर लड़कों को प्राथमिकता देते हैं। मन्नतें मानी जाती हैं , टोटके किये जाते हैं ताकि लड़के हों बस इतना ही नहीं है जैसे ही गर्भ ठहरता है ये कवायद शुरू हो जाती है की कैसे ये लड़का निकले | बेटी होना अपने आप में एक त्रासदी होती थी पति कई दिनों तक पत्नी से बात नहीं करते थे| सास के ताने होते थे| वंश रुक जाने की चिंताएं हुआ करती थीं  | किसी की बेटी कम उम्र में मर जाए तो लोग ये बोलकर सांत्वना देते की “लड़की मरे भाग्यवान की“ | लड़की होने पर उसे ठिकाने लगाने की कोशिश की जाती |

बलराम : ठिकाने लगाने की मतलब ?

मनोज : ठिकाने लगाने की मतलब मारने की | जो मुख्य रोड के पास तालाब है ना, वहीँ अड्डा है इन सब चीजों का | देखना कभी गौर से की कुत्ते, सियार घुमते रहते हैं वहां |

बलराम हतप्रभ सा बैठा था |

मनोज : कई साल पहले एक बार हुआ यूं की नवरात्री थी | बहुत तेज बारिश हो रही थी | गाँव में किसी घर में एक बच्चा हुआ जो की लड़की थी | अब लोगों को पता नहीं क्या नशा चढ़ा था सुबह उस नवजात बच्ची का मृत शरीर वहीँ तालाब किनारे पड़ा मिला| अब सोचो, नवरात्रि पर जब सारा देश कन्याओं को दुर्गा मानकर पूजता है तब कन्या भ्रूण हत्या हो जाना कितनी बड़ी बात है और कितनी बुरी बात है | बस वो दिन था  और आज का दिन है आज तक बारिश नहीं हुयी इस पूरे क्षेत्र में | सूखा पड़ा हुआ है |  अब युवा तो सारे बाहर चले गए हैं गाँव छोड़कर और महिलाएं और बूढ़े यहाँ रहने पर मजबूर हैं | हमारे जैसे लोग २-३ महीने शहर में काम करते हैं फिर १५ दिन गाँव रह जाते हैं | इस गाँव में कुछ रह नहीं गया अब |   एक मनहूसियत सी छाई रहती है गाँव के ऊपर |  सब गुजर बसर के लायक ही कर पाते हैं, फल फूल कोई नहीं पा रहा था | 

बलराम : ये तो बड़ा बुरा हुआ गाँव के साथ |  

मनोज : बुरा क्या हुआ ? जो बोया है वही काट रहे हैं | अभी भी लोग सुधरे नहीं हैं | अभी भी चलते फिरते कन्या भ्रूण हत्या की खबरें आती रहती हैं  | खैर छोडो |  

जब दोनों उठे तो दोनों का मन भारी था | मनोज , बलराम के परिवार के साथ जो हुआ उसके बारे में सोच रहा था और बलराम गाँव के बारे में सोच रहा था |  

कुछ दिन गुजरे | बलराम ने शहर में कुछ काम पकड़ लिया था |  सुबह जाता शाम में लौट आता | फिर नवरात्री आई |     

पिंकी : सुनो न , आज मंदिर ले चलो मुझे  |    

बलराम : क्यूँ ?

पिंकी : आज नौवां दिन है नवरात्री का | आज बहुत मन हो रहा है मंदिर जाने का | यहाँ तो आसपास कुछ है नहीं | पास वाले गाँव ले चलो  |    

बलराम: ठीक है शाम में आता हूँ तब चलते हैं  |    

बलराम शाम को आते आते बहुत थक जाता था पर बहुत दिनों बाद पिंकी ने कुछ बोला था तो मना नहीं कर सका| शाम को साइकिल पर बैठ कर दोनों निकले | मंदिर से दर्शन करके लौटते लौटते अँधेरा घिर आया था  |     बलराम ने सोचा एक शार्ट कट लिया जाए और साइकिल मुख्य रोड से नीचे तालाब के किनारे उतार लिया |     वहां से निकल ही रहे थे की कुछ आवाज सी आई | बहुत धीमी धीमी कुछ आवाज थी | रात का सन्नाटा ना होता तो शायद सुनाई भी ना आती |  बलराम थोडा तेज साइकिल चलाने लगा |     

पिंकी : ये कैसी आवाज थी ? किसी बहुत छोटे बच्चे के रोने की लग रही थी |    

बलराम : अरे ये सब एरिया ठीक नहीं है | यही तो वो जगह है जहाँ गाँव वाले कन्या भ्रूण छोड़ जाते हैं  |     यहाँ तालाब है , इसके आगे निकलकर नाला है | जंगली जानवर भी घुमते रहते हैं  |     

पिंकी : जो भी हो रूककर तो देखना ही पड़ेगा की क्या है?

बलराम : अरे भूत प्रेत भी ऐसी आवाजें निकालते हैं  |    

पिंकी : नहीं ,चलकर देखेंगे  |    

बलराम समझ गया की पिंकी को समझाना मुश्किल है  | उसने साइकिल टिकाई और आवाज की दिशा में आगे बढ़ने लगा | पीछे पीछे पिंकी आ रही थी | आगे कुछ हड्डी के ढेर, कुछ अस्थि पिंजर से पड़े हुए थे | उसके थोडा आगे देखने पर उन्हें दिखा एक छोटा सा बच्चा जमीन पर ही पड़ा हुआ था | एकदम नवजात शिशु लग रहा था|      एक लकड़ी से टिका हुआ था वरना शायद फिसलकर नाले में चला गया होता | पास देखने पर मालूम चला की वो लड़की थी | पिंकी और बलराम ने उसे देखा और पिंकी को एक क्षण भी नहीं लगा तय करने में | पिंकी ने उसे उठाकर अपने अंचल से लगा लिया    

बलराम : अरे, हम इसे कैसे ले जा सकते हैं ? कैसे पालेंगे ? इतना छोटा है इसका दूध कैसे होगा?

पिंकी जैसे बेसुध सी उस बच्चे को पोंछने में लगी थी,बोली : जैसे होगा हो जायेगा। आज नवरात्री के दिन मुझे मिली है ये इसे यहाँ नहीं छोड़ने वाली मैं। इसको हम पालेंगे।       

पिकी को आज सुबह से ही कुछ अलग सा महसूस हो रहा था। आज बड़े दिन बाद उसका मंदिर जाने का भी मन हुआ था। वो बच्चे को सावधानी से लेकर साइकिल पर बैठ गयी। इस समय कोई उसे देखता तो ये मानता ही नहीं कि वो पहली बार किसी बच्चे को गोद ली हुयी है। लगता था जैसे सालों से कोई अपना बिछड़ा हुआ आज मिला उसे। रात और गहराने लगी थी। तेज हवा चलने लगी थी। दोनों घर पहुंचे। मनोज और उषा भी उनका इंतजार करते करते घर के बाहर खड़े थे। एक बच्चा गोदी में देखकर वो चौंके पर बलराम ने इशारा किया की वो समझाएगा सब।  

दोनों अपने घर में घुस गए। अब पिंकी के सामने सबसे बड़ी समस्या बच्ची का पेट भेरने की थी। झोपडी में ही थोडा दूध रखा था, बच्चे को अच्छे से साफ़ करके पिंकी उसे चम्मच में भरकर दूध उसके मुंह में उड़ेल रही थी। इधर बलराम बाहर मनोज और उषा को सारा मामला समझा रहा था। बच्चा दूध नहीं पी पा रहा था और बाहर निकाल दे रहा था। बच्चा भूख से बिलबिलाने लगा। तब तक मनोज , उषा और बलराम भी झोपडी में आ गए थे। 

सब को यही डर सता रहा था की बच्चे को उठा तो लिया पर इसका पेट नहीं भरा तो कैसे जीएगा ये। इधर पिंकी पागलों की तरह उस बच्चे के मुंह में दूध डालने की कोशिश कर रही थी। अचानक उसे पता नहीं क्या सूझा उसने बच्चे को अपने स्तनों से लगा लिया। कभी मां नहीं बनी तो स्तनों में दूध तो आना नहीं था फिर भी वो पागलों की तरह चिपकाये हुए थी बच्ची को अपने कलेजे से।तभी अचानक कुछ हुआ और उसके स्तनों में दूध आने लगा। बच्ची के मुंह में दूध गया तो उसका रोना भी बंद हुआ। पिंकी के तो आंसू बहने लगे। मनोज, बलराम और उषा भी हतप्रभ थे। उषा , पिंकी की पीठ पर हाथ फेरने लगी।

मनोज और बलराम बाहर निकल आये। जो कुछ हुआ था और हो रहा था वह उनकी समझ से बाहर था।  तभी दोनों का ध्यान ऊपर गया, बड़े जोर के बदल घुमड़ आये थे। बादल गरजना शुरू हुए और तेज बारिश शुरू हो गयी। मनोज और बलराम अन्दर आ गए। अन्दर पिंकी बच्चे को दूध पिला रही थी। वो चारों खुश थे। हंस रहे थे, रो रहे थे। तभी मनोज ने बोला : नवरात्री पर ही इस गाँव से कन्या चली गयी थी इस गाँव का भाग्य साथ लेकर और नवरात्री पर ही एक कन्या भाग्य लेकर वापिस आई है। लगता है श्राप गल गया। आपने अपनी सच्चाई, इमानदारी और समर्पण से श्राप को काट दिया। इसका कुछ नाम सोचा है भाभी ?

पिंकी जिसकी पीठ थी सबकी तरफ ,थोडा सा मुड़ी और बोली : हाँ , दुर्गा।      

 

           

   

 

Apr 12, 2022

यार प्रमोशन मुझे सपने में आता है

 यार प्रमोशन मुझे सपने में आता है

1 साल हुआ घर गए हुए,२ साल हुआ कहीं घूमे हुए

अब तो रिश्तेदार भी कोई नहीं बुलाता है

पनीर तो छोडिये अब चिकन में भी स्वाद नहीं आता है

मेरा मेनेजर मुझसे अपने घर के काम करवाता है

यार प्रमोशन मुझे सपने में आता है (1)

कंसंट्रेशन भी अब लाप्स हो जाता है

अनिद्रा, भूख की कमी, कमजोरी अब सब सताता है

दम्सराज में कोई प बोले तो पत्नी से पहले प्रमोशन याद आता है

यार प्रमोशन मुझे सपने में आता है (२)

८ बजे आना 5 बजे जाना

८ बजे आना 5 बजे जाना

ऐसी क्लियर फ़िलासफ़ी वाला बंदा भी 7:30 बजे घर जाता है

हॉटलाइन के बाद बॉस के कमरे के बाहर ही मंडराता है

बेसिर पैर के बेढंगे सवाल बस बॉस को प्रभावित करने के लिए उठाता है

यार प्रमोशन मुझे सपने में आता है (३)

इत्तू सी भी पूजा पाठ ना करने वाला अब दिन में 4 बार अगरबत्तियां जलाता है (R)

एकदम अखंड नास्तिक सा ये प्राणी अब हर मंदिर पे शीश नवाता है

सप्ताह में एक बार नहाने वाला ये जानवर अब दिन में २ बार नहाता है

यार प्रमोशन मुझे सपने में आता है (४)

रिजल्ट कब है, कब है रिजल्ट, ये पूछता था मैं अपने बच्चे से

वो अब प्रमोशन कब है प्रमोशन कब है बोलकर मुझे चिढाता है

प्यार में भी कोई किसी को ऐसे नहीं तड़पाता है

यार प्रमोशन मुझे सपने में आता है (5)

यूरो ट्रिप का सोचने वाला अब दार्जिलिंग का प्लान बनाता है

एकदम चिल रहने वाला ये बंदा अब ब्लड प्रेशर की दवाईयां खाता है

ये हीरा मूंगा पन्ना भाई सबसे भरोसा उठ जाता है

जब प्रमोशन मुझे सपने में आता है (6)

कोई मौसम आता है कोई मौसम जाता है (R)

इस सावन के अंधे को बस प्रमोशन नजर आता है

हालत ये है अब की रणवीर कपूर की पर्सनालिटी वाला ये बंदा

अब राजपाल यादव सा नजर आता है

यार प्रमोशन मुझे सपने में आता है (7)

बॉस का दिया छोटा सा टास्क भी अब अभिमन्यु का चक्रव्यूह नजर आता है

मेरा पडोसी अपने ओ ग्रेड का मुझे दम दिखाता है

मेरी तो समझ नहीं आता की

मेरा प्रमोशन देने में कंपनी का क्या जाता है

यार प्रमोशन मुझे सपने में आता है (8)

हँसते खेलते मेरा चेहरा उतर जाता है

आँखों की कोर पे एक आंसू छलक आता है 

डॉक्टर भी ना पकड़ पाए ऐसे दिल घबराता है

इस प्रमोशन के इमोशन में मेरा मोशन अटक जाता है

यार प्रमोशन मुझे सपने में आता है (9)

 

Oct 16, 2021

मां जो कभी १६ साल की लड़की थी

 इक बंद से घर में खुली हवादार खिड़की थी

मां जो कभी १६ साल की एक लड़की थी

पूरे घर में चिड़िया सी फुदकती रहती थी

त्यौहारों में एक नया ही रंग घोल देती थी

बाबा की दुलारी और भाइयों की लडैती थी

मां जो कभी १६ साल की एक लड़की थी

कभी बाबा की तम्बाकू खाने की नक़ल उतारती

कभी भैया के कपडे पहन इतराती

कभी पीछे से अम्मा को धप्पा बोल जाती थी

मां जो कभी १६ साल की एक लड़की थी

खेत की मेढ़ों पर सरपट दौड़ लगाती थी

जरा सी तारीफ पर फिर दिन भर इठलाती थी

दिन भर भागती फिरती फिर भी कभी न थकती थी

मां जो कभी १६ साल की एक लड़की थी

मां जब कहती कुछ काम सीख ले ससुराल में काम आएगा

तो बाबा से शिकायत लगाती थी

मां जब कहती लडको जैसे लक्षण हैं इसके

तो भैया के पीछे छिप जाती थी

मां जब कहती की ससुराल में नाक कटाएगी ये

तो जीभ चिढ़ा के भाग जाती थी

मां जो कभी १६ साल की एक लड़की थी

पौ फटते ही जग जाती और देर रात को सोती थी  

हंसती तो घंटो हंसती और रोती तो किसी भी बात पे रो देती थी

अपने दादू की शान और बाबा की जान हुआ करती थी

मां जो कभी १६ साल की एक लड़की थी

सबकी खाने पीने दवाईयों का पूरा ध्यान रखती थी

भैया जब शहर जाते तो फरमाईशें साथ भेज देती थी

भैया कुछ नहीं लायें तो मुंह फुलाकर बैठ जाती थी

मां जो कभी १६ साल की एक लड़की थी

कभी झटपट पेड़ पर चढ़ आम खाती थी

कभी छज्जे से कबूतर उड़ाया करती थी

साइकिल से पूरा गाँव नाप आती थी

बरसात में भीग के मोरों के साथ नाचती थी  

मां जो कभी १६ साल की एक लड़की थी

मां आज भी दौड़ती भागती है

मां आज भी जल्दी जाग जाती है  

मां आज भी सबके खाने पीने का ख्याल रखती है

पर मां अब जिम्मेदारियों के तले दब गयी है

कमर उसकी थोड़ी सी झुक गयी है

चेहरे पे झुर्रियां पड़ने लगी हैं

नजर थोड़ी कमजोर होने लगी हैं

आंखें थोड़ी गड्डों   में जाने लगी हैं

उसकी उच्छंद सी चाल थकने लगी है

उन्मुक्त सी वो हंसी अब रुकने लगी है

घुटने में दर्द भी रहने लगा है

वो मां जो किसी मेहमान के आने का सुनकर

बस स्टैंड तक भाग कर जाती थी

वो मां आज फाटक पर बैठ कर रास्ता देखने लगी है

मां अब बदल गयी है

क्यूँ अब वो कोई जिद नहीं करती ?

क्यूँ अब वो किसी से रूठती नहीं है ?

क्यूँ वो अभी कुछ मांगती नहीं हैं ?

मां क्यूँ बदल गयी है

मुझे वही मां चाहिए

वही पुरानी वाली मां

मां जो कभी १६ साल की एक लड़की थी 

Sep 25, 2021

अबला

दिल्ली से मुंबई जाने वाली लोकमान्य तिलक ट्रेन जैसे ही ‘झाँसी’ स्टेशन पर रुकी जनरल बोगी के भीड़ भाड़ वाले डिब्बे में वो शादी शुदा जोड़ा घुस गया।  आदमी दुबला पतला लम्बा सा था और औरत नयी दुल्हन सी सजी धजी और लम्बा सा घूँघट काढ़े थी। चूँकि डब्बा पूरा भरा हुआ था इसलिए दोनों जमीन पर ही बैठ गए। आदमी कुछ गुस्से में लग रहा था लगातार बडबड़ा रहा था । 

आदमी: न, रहने का ठिकाना है न ढंग से खाने पीने का। अब तुझे कहाँ रखूँगा वहां छोटी सी खोली है। बस रहने के नाम पे कुछ दिन और रह लेती तो क्या बिगड़ जाता ? जैसे तैसे करके पैसे भेज रहा था न गाँव फिर भी इनको शहर आना है ।

औरत : मैंने थोड़ी न कहा था कुछ।

आसपास बैठे लोगों को इस नवदम्पति और उसकी कहानी में दिलचस्पी होने लगी थी। हर ट्रेन के जनरल डिब्बे की यही खासियत होती है की हर इन्सान की अपनी जिन्दगी में कितनी भी समस्याएं हों जैसे ही कोई दूसरा आदमी दिखता है, कुछ नयी समस्याओं के साथ तो इन्सान की दिलचस्पी उसी में हो जाती है। तो कोई खैनी रगड़ते हुए और कोई बीड़ी पीते हुए इसी दम्पति को घूरे जा रहा था।

पति पत्नी की बातचीत से समझ आ रहा था की दोनों के बीच किसी बात को लेकर के तनाव है और लोगों को इसे देखने में मजा आ रहा था ।

अगले स्टेशन ‘बीना’ पर ट्रेन रुकी तो आदमी पानी की बोतल लेकर पानी भरने उतर गया ।

फिर ट्रेन चल दी 5-7 मिनट में। सभी यात्री जो उतरे थे वापिस चढ़ गए ट्रेन में पर महिला के पति का कुछ ठिकाना नहीं था। पहले तो महिला को लगा की भीड़ भाड़ है आ ही रहा होगा। फिर घबराहट होने लगी। वो खिड़की के बाहर देखने लगी तब तक ट्रेन ने भी रफ़्तार पकड़ ली थी ।

आसपास के लोगों को अब इस कहानी में और महिला की बैचैनी में मजा सा आने लगा था ।एक कौतुहल सा सबको लग रहा था ।

कोई बोला : छूट तो नहीं गया वो स्टेशन पर?

दूसरा : मुझे तो चढ़ते नहीं ही दिखा था।

तीसरा : कोई हादसा तो नहीं हो गया ?

भीड़ में से किसी ने पूछा : मोबाइल नंबर है उसका?

पत्नी को याद आया कि मोबाइल तो था उसके पति के पास पर उसे नंबर जानने की कभी जरुरत नहीं पड़ी।

हमेशा ससुर या देवर अपने फ़ोन से बात करा दिया करते थे।

औरत : (सकुचाते हए ) नंबर तो नहीं है।

भीड़ : क्या पति का ही नंबर नहीं है ? तो देवी जी उन्हें ढूंढा कैसे जायेगा ?

औरत खामोश है, अपने पैरों के नाखून देख रही है ।

भीड़ : कहाँ जा रहे थे आप लोग ?

औरत : बम्बई ।

भीड़ : कुछ पता ठिकाना है वहां का या किसी का नंबर ?

औरत : (लाज से सकुचाते हुए ) मैं तो पहली बार जा रही थी बम्बई ।

भीड़ : अरे कुछ तो होगा ? कुछ कागज पत्तर या चिट्ठी विट्ठी ?

औरत को याद आया एक चिट्ठी थी जो देवर ने उसके पति को लिखी थी और उसके बैग में रखी थी ।  

औरत : हाँ, एक चिट्ठी है ।

भीड़ : दिखाईये , देखते हैं कुछ पता मालूम चले ।

अब औरत अजीब द्वंद्व में थी की अपने घर की चिट्ठी इन अजनबियों के हाथ में सौंपे की नहीं ? अगर नहीं देगी तो पति की खबर कैसे मिलेगी ?

औरत चिट्ठी निकाल कर एक नौजवान को देती है ।

नौजवान जोर जोर से चिट्ठी पढता है और पूरा डब्बा पूरे कौतुहल से चिट्ठी को सुनता है । चिट्ठी का सार ये है की महिला के देवर ने अपने बड़े भाई यानी की महिला के पति को लिखा था कि गाँव में इस बार खेती पूरी मारी गयी है । यहाँ अब बमुश्किल गुजारा हो रहा है । तुम्हारे भेजे पैसों से ही काम चलता है पर उसमे भी चार आदमियों (मां, बापू , भाभी और देवर ) का पेट पालना अब मुश्किल हो रहा है । हम दुसरे गाँव में मजदूरी ढूंढने जा रहे हैं तो भाभी की जिम्मेदारी यहाँ बूढ़े माता पिता पर डालना मुश्किल होगा । बाबू जी का कहना है की तुम जल्दी आकर भाभी को अपने साथ ले जाओ । हमको मालूम है की तुमने छः महीने बाद छठ पे भाभी को ले जाने का तय किया था पर अब यहाँ इतना समय निकलना भी मुश्किल है ।  

नौजवान (सबको सुनाते हुए ): चिठ्ठी से ये समझ में आ रहा है की इनकी आर्थिक स्थिति ख़राब है गाँव में और इसकी वजह से इनके पति को इन्हें बम्बई ले जाना पड़ रहा है मजबूरी में । जब ये लोग चढ़े थे ट्रेन में तब इनके पति के बडबडाने से ये समझ आता है की उनका मन था नहीं इन्हें ले जाने का क्यूँ की उनकी बम्बई में कुछ खास व्यवस्था है नहीं । 

भीड़ : फिर ?

नौजवान : मेरे विचार से इनके पति इनको छोड़ कर भाग गए हैं । उन्हें हिसाब किताब कुछ समझ नहीं आ रहा  था और उन्हें ये मालूम था की ये जिनके पास न पति का कुछ पता है न मोबाइल नंबर है उन्हें ढूंढ नहीं पाएंगी । 

भीड़ : अब इनका क्या होगा ?

भीड़ : होगा क्या पैसा लत्ता भी सब आदमी ही ले गया होगा ये तो वापिस भी नहीं जा पाएंगी । 

भीड़ : वो बेचारा भी क्या करता जब नहीं निभा पा रहा जिम्मेदारी तो कट लिया । 

भीड़ : इनको बम्बई में तो लोग बेच खायेंगे ।  (फूहड़ हंसी हँसते हुए )

महिला को तो जैसे काटो तो खून नहीं । उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था । आँखों के आगे अँधेरा सा दिख रहा था । सब लोग उसे ही घूर रहे थे उसकी चिट्ठी पढ़कर और उसकी परिस्थिति में लोगों के ऐसे घुस जाने से उसे ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने उसके सारे कपडे फाड़ दिए हों और उसे नंगा कर दिया हो । 

उसने बचपन में अपनी मां से द्रौपदी की कहानी सुनी थी जिसका भरे दरबार में चीर हरण हुआ था । आज उसे भी ऐसा ही कुछ लग रहा था ।  जिस तरह लोग अब उसे अबला जानकर घूर रहे थे उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसका अस्तित्व सिमट कर बस मांस के एक टुकड़े जैसा हो गया है जिसे खाने के लिए गिद्धों की भीड़ जुटी हुयी है ।  द्रौपदी की रक्षा के लिए तो केशव आये थे यहाँ तो बस उसे दुशाशन ही दिख रहे थे । वो अपना मुँह घुटने में छिपा कर बैठी थी ऑंखें बंद कर के , ऐसा लग रहा था जैसे उसके आसपास जो लोग उसे घूर रहे थे उनकी परछाईयों का आकार धीरे धीरे बढ़ रहा है । सारी परछाईयाँ जीभ निकाल कर , लार टपकाते हुए उसके पास आती जा रही हैं 

वो अपने में ही सिमटी हुयी बैठी थी उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करे तभी ट्रेन रुकी ‘भोपाल’ स्टेशन आया था । 

भीड़ में से कोई : भोपाल आ गया है ।  यहाँ ट्रेन थोडा ज्यादा देर रूकती है ।  यहीं उतर जाओ रेलवे पुलिस को बताओ सारा मामला, फिर देखो वो कुछ कर सकें तो । 

महिला ने अपना सामान समेटा और उठने लगी । अब उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे । एक अनजान सा डर उसे सता रहा था ।  आसपास बैठे लोग उसे आँखों से ही तौल रहे थे । 

इधर ट्रेन में चढ़ने वालों की भीड़ हल्ला ग्गुल्ला मचा रही थी । 

तभी एक नौजवान लोगों को धक्का देता हुआ अन्दर घुसा ।  उसकी नजर महिला पर पड़ी ।  ये उसी का पति था

वो डिब्बे के अन्दर आ गया जहाँ वो लोग पहले बैठे हुए थे । 

महिला ने उसे देखा तो ख़ुशी से चौंक गयी ।   

पति (लम्बी सांसे लेता हुआ ): अरे, पिछले स्टेशन पर ट्रेन चल दी थी तो स्लीपर डिब्बे में चढ़ गया था ।  अन्दर से आने का रास्ता था नहीं तो भोपाल आने का इन्तेजार कर रहा था ।  भोपाल आते ही भाग कर आया । 

महिला सिसक कर रोने लगी । 

पति : घबरा गयी होगी न तू ? थोडा तो तेरे लिए मैं भी डर गया था ।  पर अकेले बैठने से ये हुआ कि थोडा समय मिला सोचने का ।  वहां बैठे बैठे सोचता रहा कि इतनी भी बड़ी समस्या नहीं है तेरे जाने की । मैं तो खुद छठ के समय तुझे लाने का सोच रहा था । तेरा अचानक आने का सुना तो हडबडा गया, इसीलिए गुस्सा आ गया    अब तू चल ही रही है साथ में तो मिलकर गृहस्थी की गाडी पटरी पर ले आयेंगे । 

पत्नी का रोना ही बंद नहीं हो रहा था । 

आसपास बैठे लोगों को उस आदमी के आ जाने से एक झटका सा लगा था जैसे कोई फिल्म एक दुखद क्लाइमेक्स की तरफ जा रही हो फिर एक दम से हैप्पी एंडिंग आ जाये । उनके सारे खयाली पुलाव हवा में उड़ गए थे । 

औरत ने मुंह उठाकर सबकी और देखा तो पाया सभी लोग बगलें झाँक रहे थे ।