कल शाम को खाना खाने के बाद मैं जैसे ही अपने कमरे में आया और लैपटॉप चालू किया ही था की लाइट चली गयी . फिर हम सभी दोस्त लोग बाहर बेठे हुए बिजली वालो को कोश रहे थे . और कोशते भी क्यों न हमारे सारे काम रुके पड़े थे. किसी को इन्टरनेट करना था, किसी को टीवी देखनी थी और किसी को खाना खाना था. मैं बैठा बैठा सोच रहा था की हम सच मुच कितने ज्यादा निर्भर हो गए हैं बिजली पे, फिर मेरा ध्यान मेरे आसपास की दुनिया पे गया और फिर मुझे लगा की क्या सचमुच जो भी Invention हुए हैं उनसे हमारा रहन सहन का स्तर सुधरा है????
यही सोचते सोचते मुझे अपनी नानी का गाँव याद आया और मैं एक फ्लशबेक में चला गया . वहां आज जैसी कोई सुविधा न थी पर एक सुकून था . आज वही की कहानी कहूँगा . कहानी सच्ची है तो सब कुछ सच सच् ही लिखूंगा.
तो ये बात तब की है जब मैं क्लास ४ या ५ में पड़ता था. हम वार्षिक परीक्षा के बाद वाली गर्मी की छुट्टी का बेसब्री से इन्तेजार करते थे. वो २ महीने की छुट्टी मानो जन्नत हुआ करती थी . हम अपनी छुट्टियाँ बिताने अपने नाना के घर जाया करते थे. उस समय मोबाइल फ़ोन प्रचालन में नहीं थे तो अंतर्देशीय और पोस्ट कार्ड का चलन था. हम जाने के १५-२० दिन पहले नाना को ख़त लिख कर अपने आने की तारीख से अवगत करा दिया करते थे .नाना का गाँव आगरा से कानपूर लाइन पे शिकोहाबाद क पास पड़ता था. चूँकि उस समय वहां बस और टेम्पो ज्यादा नहीं चलते थे तो एक मैनपुरी नामक जगह पर नाना जी अपनी बेलगाडी के साथ नियत तारीख को पहुच जाते. मिलने की जगह फिक्स रहती थी तो अगर हम पहले पहुचते थे तो वो इन्तेजार करते वरना हम इन्तेजार करते. फिर भरी धुप में घंटा भर बेलगाडी का सफ़र . बेल के धीरे चलने पर नाना जी का उसे कोशना और कहना " अरे तुझे चमार चीरे ","अरे तुजेह आग लगे" , "अरे बेल है के बकरा है " और जैसे बेल उनकी गालियों से motivate होकर तेज चलने लगता. गाँव पहुचाते ही दूर से ही जो भी मिलता उसका पापा से दुआ सलाम शुरू हो जाता. और लोग कहते "राम राम सा ". मैं पापा से पूछता की पापा आपको सब जानते हैं तो पापा बताते बेटा ये manners होते हैं है की कोई भी अपने गाँव आ रहा है तो उसका स्वागत करो. मैं सोच में पड़ जाता की हम तो अपने teacher को देख के छिप जाते थे. कच्चे रास्तों पे चलते हुए खैर जैसे तेईसे हम पहुचाते अपने गाँव . तब तक शाम ढल जाती थी तो चारो तरफ लालटेन और ढिबरी (एक शीशी जिसके ढक्कन में छेद कर के बत्ती डाल कर लालटेन जैसे उपयोग में लाते थे ) दिखाई देने लगतीं. यहाँ ये बता दू की नाना नानी के यहाँ बिजली नहीं है, न ही कोई घडी थी उस दौर में. हमें समय का कोई इल्म नहीं रहता था वहां और शायद जरुरत भी नहीं थी. नानी का गाँव थोडा पिछड़ा हुआ है तो वहां लोगों का अपना ही रहन सहन का एक ढंग था . रात को खाने खाने के बाद घर की औरतें घर के अन्दर और पुरुष मकान के बहार चबूतरे पे खाट डाल कर सोते थे. चूँकि उस समय संयुक्त परिवार हुआ करते थे तो सब बड़े छोटे मिलाकर १०-१२ पुरुष हो जाते थे सोने वाले. कुछ लोग अपने खेतों पे भी चारपाई डाल के सोया करते थे. मुझे याद है मेरे नाना के पास एक रेडियो था जिसे वो जान से ज्यादा प्यार करते थे और जब भी मैनपुरी जाना होता उसमे बेटरी डलवा कर ले आते. नाना के रेडियो में समाचार आते थे और आते जाते लोग उस चबूतरे पे बेथ जाते समाचार सुन ने को. उसके बाद गहन विचार विमर्श होता खबरों पर . मेरा काम बस सुन ने का हुआ करता था. रात के समय खुला आसमान हुआ करता था सर पे और मुझे याद है जितने तारे मैंने उस समय गिने होंगे उतने उसके बाद शायद कभी नहीं गिन पाया (अब पता नहीं इसमें दोष मेरी याददाश्त का है या प्रदुषण का ).ठंडी ठंडी हवा चलती और जुगनू उड़ते हुए दीखते . खेतों की तरफ से गीदड़ो और सियारों की आवाजे भी सुन ने को मिल जाती थी. सुबह जब नींद खुलती तो आसपास के सभी चबूतरे मिलाकर शायद मैं ही जागने वाला आखरी इन्सान होता था. सुबह सुबह लोग खेतों की तरफ जाते दीखते. टोइलेट थी नहीं तो हमें भी आसपास के किसी हैंडपंप से कोई बोतल उठाकर आसपास किसी खेत में जाना पड़ता. आज ये सब सोच कर भी अजीब लगता है जबकि उस समय ये सामान्य लगता था . फिर मामा एक दातून तोड़ देते नीम की,तो उसी से ब्रुश हो जाता. फिर वापिस आते तो नानी मठा पीने को देती और फिर हम मामा के साथ खेत पे चले जाते. दोपहर में जब मामा खेत के लिए मोटर चलाते तो हम भी उसी पानी से नहा लेते . चारो तरफ पेड़, चारो तरफ हरयाली . जिसके घर चले जाओ वहां घी लगी रोटियां . हम जाने न जाने सभी हमें जानते थे. दोपहर में खाना खा पीकर मामा के ही साथ कही छाओं में खटिया डाल के पड़े रहते . न किताबें थीं वहां , न टीवी थी, न कोई और साधन मनोरंजन का पर समय का धयन ही नहीं रहता था . किसी के भी घर में कोई कार्यक्रम होता तो गाँव के ही लड़के खाना परसने में लग जाते . शादी ब्याह के संमय गाँव की ही औरतें पूड़ी बिल्वाने जाती थीं . शादी वाले घर में गाने बजाने का काम भी गाँव की औरतें ही सम्भाल लेती थीं. किसी के यहाँ किसी की death हो जाती तो भी खाना पीना आस पड़ोस से आ जाता था . वहां बिजली नहीं थी पर उसकी जरुरत ही नहीं महसूस होती थी. टीवी नहीं थी पर आपस की गप्पों में ही समय निकल जाता था. पंखे नहीं थे पर भरी गर्मी में भी हाथ के पंखो से काम चल जाता. वहां घरों के पते नहीं होते बस पोस्ट मास्टर सब को नाम से जानते थे तो हर चिट्ठी नियत जगह पहुच जाती थी. फ़ोन और इन्टरनेट हुए बिना भी लोग संपर्क में रहते थे खतों के जरिये और ख़त भेजने के बाद जवाब का इन्तेजार करना, उसका अपना ही मजा था. वहां दुनिया छोटी थी पर लोग दूर दूर तक एक गाँव वालो को जानते थे . आज एक दुसरे से जुड़ने के साधन बाद गए हैं तो हम और दूर हो गए हैं एक दुसरे की जिन्दगी से . आज महानगरों में लोग अपने पडोसी को ही नहीं जानते . आज के बच्चे मोबाइल फ़ोन और मोटर साइकिल के तो सभी मॉडल जानते हैं पर देश दुनिया की जानकारी ख़तम हो गयी है....
आज सब सोचता हु तो एक सवाल आता है दिमाग में की technology ने हमारी जिन्दगी आसान बनायीं है या हमें कुदरत से और दूर कर दिया.........आप भी सोचियेगा....
4 comments:
The true philosophy of life..Its a reality....we always get surprises by the life... nice lines
@ankit: thanks a lot buddy for ur feedback...but please mention ur name also...
nice thought...waise hum sabke flashback ki yahi kahani hai....anyways excelant blog....
dekhne ka nazaria hai dost .... aaj hum huamre naana nani se door par apni gf/biwi k kitna pass rahete hai ... haina ... cheez hai .. kaise bhi istemaal karo .. jo log pahele kai kai din khato ka intezaar kia karte they .. aaj kam se kam pal bhar mein apne chahane walo se baat toh kar sakte hai .. yeh bhi toh socho ... jisko door hona hota hai woh ho jata hai ..jis ko kareeb rahena hai woh chahe khato se chahe phone se .. kaise bhi aap k saath he rahega .. baatein considerable hai .. but it will b wrong to put all the blame on the technology .. aaj humare pass samah techonology ki wahaj se kam nahi hai .. samah kam hai is liye technology ka izad hua ...
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