कंधे पे बिठा के मेला दिखाने ले जाते थे पापा
रात में कितने भी थके हों पर कहानी जरूर सुनाते थे पापा
मेरी हर जीत पे मोहल्ले में मिठाई बंटवाते थे पापा
फिर हर हार पे हिम्मत भी बंधाते थे पापा
छोटी से छोटी जीत को भी त्यौहार सा मनाते थे पापा
बड़ी से बड़ी हार पे भी पीठ थपथपाते थे पापा
खुद तंगहाल रह मुझे नए कपडे दिलवाते थे पापा
मेरी गलतियों पे मुझे डांटते थे पापा
पर मैं जब रूठ जाऊँ तो खुद ही मुझे मनाते थे पापा
फ़ोन पे कहते मम्मी से बात कर लिया करो याद करती है
पर खुद कितना याद करते हैं ये कभी न बताते थे पापा
पूरे मोहल्ले के सामने मुझे अपनी शान बताते थे पापा
मैं उनकी कमजोरी और मेरी ताक़त थे पापा
कल पापा को देखा तो लगा क्या बूढ़े हो रहे हैं पापा
क्या कभी बूढ़े भी होते हैं पापा ??
3 comments:
Bahut khub😍
Wonderful , touching poem....Arvind U r such a master with words....
Sachh main aise hi hote hain "papa"
Kya bat..bahut badhiya...
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