था कभी प्यार का हसीन मौसम तेरे शहर में
आज किस बात का है मातम तेरे शहर में...
हर कोई खुश है बेहिसाब मेरे क़त्ल के बाद
क्यूँ क़ातिल मना रहा है ग़म तेरे शहर में...
शीशे तो खौफ खाते ही हैं पत्थरों से लेकिन
पत्थरों का क्यूँ निकला है दम तेरे शहर में...
नज़दीक से गुज़र गया वो ज़ख्म दिए बगैर
शायद बाकी है पत्थरों में शरम तेरे शहर में...
इंसानियत की पीठ में घोंपे मज़हबों के खंज़र
लोग करते रहे अल्लाह पे सितम तेरे शहर में...
ये मत समझ लेना इक मौत से डर गया हूँ मैं
लेकर आऊँगा फिर अगला जनम तेरे शहर मै...
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