Apr 8, 2021

इक रोज हम मिलेंगे

इक रोज हम मिलेंगे 
वहॉँ जहाँ कोई जात पांत नहीं पूछता 
वहॉँ जहाँ न हिन्दू न मुसलमान होगा 
जहाँ कोई मजहब नहीं बस इंसान होगा 
जहाँ हर साँस का सम्मान होगा 
इक रोज हम मिलेंगे 
पगडंडियों पे एक दूसरे का हाथ थामे हुए
खेतों की मेढ़ों पे चलते हुए 
पीली सरसों के बीच दौड़ते हुए 
अलसायी शामों में सूरज डूबते देखेंगे 
इक रोज हम मिलेंगे 
उस पुराने बरगद तले  
जहाँ दरवेश कुछ गाता रहता है  
जहाँ चिड़िया बेख़ौफ़ दाना चुगती है
जहाँ तितली हाथों पे आकर बैठ जातीं है 
इक रोज हम मिलेंगे 
वहॉँ जहाँ पुरवाई बहती है 
जहाँ नदियां भी कुछ कहती हैं 
उस पुराने मंदिर में मन्नतें बांधते हुए 
उस खंडहर में सपने बुनते हुए 
इक रोज हम मिलेंगे 
वहॉँ जहाँ डर का नामोनिशान न होगा 
वहॉँ जहाँ हम परिंदों सा उड़ सकेंगे 
इन समाजों की पहुंच से परे 
इन खोखले रिवाजों से परे 
इक रोज हम मिलेंगे 
वहॉँ जहाँ जमीन आसमाँ एक हो जाते हैं 
जहाँ सूरज सागर में डूब जाताहै 
जहाँ तेरी हंसी गूँजा करती है 
जहाँ ख़ामोशी भी बातें किया करती है 
इक रोज हम मिलेंगे 
वहॉँ जह तुम्हारी जुल्फों के साये होंगे 
वहॉँ जहाँ हम खुल के रो सकेंगे 
वहॉँ जहाँ हम एक दूसरे के हो सकेंगे 
वहां जहाँ हम हमेशा के लिए सो सकेंगे 
इक रोज हम मिलेंगे 
लाज़मी है की हम मिलेंगे 
समा जायेंगे एक दूसरे में दोनों 
फिर कभी जुदा होंगे 
फिर कभी किसी को कभी न मिलेंगे 
ऐसे इक रोज हम मिलेंगे

1 comment:

Upendra said...

एक दिन हम मिलेंगे, शेड्यूल बना लो, तुम्हारी जुवां से सुनना है ये कविता